Tuesday, October 7, 2014

क्यों रोती ये जनता!!!

क्यों रोती ये जनता, क्या रोना ही अब काम हैं 
कभी कोई चीज़, तो कभी किसी का नाम हैं
रो रही हैं जनता, रोना ही बस काम हैं 

रो रहे हैं हम, क्यु बाड़ हैं इत्ती आई
रो रहे हैं हम, क्यों सूखे ने जान खाई 
रोये थे क्या तबभी, जब पेड़ो को काटा था,
रोये थे क्या तबभी, जब तालाबों को बहाया था,

क्यों रोती ये जनता, क्या रोना ही अब काम हैं 
कभी कोई चीज़, तो कभी किसी का नाम हैं
रो रही हैं जनता, रोना ही बस काम हैं 

रोते हैं हम जब, इज़्ज़त किसी की लुटती हैं
रोते हैं हम जब, सजा वो नेता पाता हैं
क्या रोये थे हम, जब इज़्ज़त किसी की छेड़ी थी
क्या रोये थे हम, जब चोर नेता को जिताया था

क्यों रोती ये जनता, क्या रोना ही अब काम हैं 
कभी कोई चीज़, तो कभी किसी का नाम हैं
रो रही हैं जनता, रोना ही बस काम हैं 

रोते हैं सब तब, जब मांगे कोई घूंस हैं 
रोते है सब तब, जब चोरी कुछ हो जाता हैं 
क्या रोये थे तब, जब दहेज़ हमने माँगा था 
क्या रोये थे तब, कला धन छुपाया था 

क्यों रोती ये जनता, क्या रोना ही अब काम हैं 
कभी कोई चीज़, तो कभी किसी का नाम हैं
रो रही हैं जनता, रोना ही बस काम हैं 

Friday, June 13, 2014

वो !!

एक रात की उमीद हैं मेरी, तेरी याद 
एक सुबह का ख़्वाब, तेरा साथ,
सोचा करू तुझको तो ख़ुशी हैं तेरा नाम 
देखलु तुझे तो ज़िंदगी तेरी बात

पूछे तुझे तो खुलती हैं आँखे।   
चाहुँ तुझे तो चलती हैं साँसे 
साथ तेरा धड़कन बन जाती है 
शाया तेरा मेरी रूह बन जाती हैं 

वो !!

Tuesday, June 3, 2014

फुटपाथ !

एक फुटपाथ का वो छोटा सा कोना,
जंहा कभी उसने सुरु किया था रोना 
दिन में जो थाल बनती, और रात में बिस्तर 
जिसपे खुद जीना सीखा उसने आँशु पीकर 
आज वो फुटपाथ बिक गयी हैं,
ज़िंदगी फिर से उसी मोड़ रुक गयी है 
एक वो थे जिन्होने मोल न समझा था उसका 
और एक वो है जो आज मोल लगा रहे उसका 

Friday, May 30, 2014

ख्वाहिशों की दौड़ में, ज़ज़्बात खो गए
मंज़िलों की फ़िक्र में, राह छूट गए 
मशगूल थे जुटाने को ज़िंदगी हम, और  
मुख्तलिफ सी ज़िंदगी, आँखे बंद ज़ी गए ।

Tuesday, May 13, 2014

ऐ राही !!

राह में बैठा क्या सोचे राही, राह कहां ये जांनीं हैँ।
जो तू सोचे राह चलेगी, ये चाह तेरि बैमानि हैँ ।
मंज़िल से क्यो दूर खड़ा तु, मंज़िल खुद न आनीं हैँ ।
जो पग को तु सफ़र बनाले, मंज़िल तुझको पानि हैँ।


Sunday, May 11, 2014

एह्शास

एक लाश पड़ी देखि मैने आज,
काडी धुप मे तड़प्ते।
जान तो नहि थी उसमे
पर आँखे जैसे बोलना चाहती।
एक पल पहले हि देखा था उसको
खुश था ज़िंदगी से शायद
पर जाने कौन सा गम था
मार गया उसको लम्हों मे ।
अगले ही पल हैरान खड़ा
मै लाश ढ़ूंढ रहा था
दफना दिया था उसको
मेरे वक़्त ने आगे बढ़कर
अब तो याद भी नहि
कितनो को तो मैंने खुद
क़त्ल किया हैं हर रोज़ ।






Friday, March 14, 2014

क्यो साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!

क्यो साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!

चुनावो में रंगा  हैं ये देश, पर रंग किसीका मिलता नहीं
कौन सच्चा, कौन झूठा  भेद किसीका खुलता नहीं 
बैठ चौराहो पे देदे धरना, पर बात कोई सुनता ही नहीं 
वादे तो बहुत हैं उनके, पूरा किसीका होता नहीं। 

क्यो साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!

कर रहा देश का नाम कोई, कोई बदनामी से डरता नहीं,
सम्मान जिसका लुट चूका था, बात उसकी कोई सुनता नहीं 
मरना तो था जिन्हे सीमाओ पे, घरो में वो बचते ही नहीं 
बेच खाया देश को, वो गद्दार क्यों मरते नहीं,

क्यो साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!

क्या है ये धर्म उसका, खुद का कोई देखता नहीं,
क्या है ईश्वर, क्या है अल्लाह, जनता उसको ही नहीं,
मांगते हैं सब ही उससे, मानता उसकि ही नहीं,
मर चुको को पूछते हैं, जिन्दो को कोई पूछता ही नही  

क्यो साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!

वैसे तो बहाने बहुत हैं पास मेरे 
रंगों में रंग अब घुलता नहीं 
एक भाई दुसरे से मिलता नहीं 
मिलते हैं तन, मन मिलते ही नहीं 
रंगों से सजी ज़िन्दगी, बेरंग जहाँन देखता नहीं 
क्यो साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!
क्यो साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!

Monday, February 24, 2014

चाह

तश्वीर देख उसे तोड़ देते हैं, मंज़िल मिले तो राह मोड़ देते हैं।
मुकम्मल नहीं वो खयालात हो, मंज़िल वो जिससे न मुलाकात हो।
खयालो में रहना सुकून देता हैं, नयी राहे बनाना जुनून देता हैं।
अधूरा रखना चाहता हूँ खुदको, वो मुझे ज़िंदा रहने कि चाह देता हैं।