Monday, October 3, 2011

धड़कन सुना रही है सच,
पर दिल मे कोई आह नहीं हैं.
मंजिल की तस्वीर देखी थी,
पर उसकी कोई राह नहीं हैं.
आवाजो मे धिक्कार भरी थी,
पर सुनने को कान नहीं हैं.
बदले की आवाज कुचल्दो
ये खुदका सम्मान नहीं हैं.
ज़ंजीरो में बंधा न था मै,
पर मै खुद मै अज्जाद नहीं हैं
तन मन की एक प्यास जगी थी पर
भुझ जाने को संसार खड़ी हैं
लगने को तो ठेश बहुत सी
पर मरने को जान नहीं हैं
मिला था सबका प्यार बहुत तो,
पर मिलाने को आँख नहीं हैं.

1 comment:

  1. सुंदर रचना ... बहुत खूब लिखा है आपने.... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/.

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