Saturday, March 2, 2013

दुआ

गर कर लेता कबुल हर दुआ, तो तुझे पूजता ही क्यों बन्दा।
गर हर ख्वाहिस हो जाती पूरी, तो तुझसे मांगता क्यों बन्दा।
गर कर सकता कुछ खुद से, तो हाथ फैलता क्यों ये बन्दा।
गर रखनी थी इत्ती मजबुरिया, तो बनाया ही क्यों ये बन्दा।

माना कायनात हैं ये तेरी, तो क्यों न खेलेगा तू इससे।
ये जमी तेरी ये आंसमा तेरा, तो रंग क्यों न भरेगा इसमें।
ये दरिया तेरी, ये पर्वत तेरे, तो जन्नत बसाया है इसमें।
पर इन्सा बनाके तूने, दिलो दिमाग दे दिया क्यों इसमें।

तेरी ऐसी बद्शाहत काबुल ना हैं मुझे, तेरे होने की परवाह नहीं।
जो तेरी हैसियत सैता से बढ़के होती, तो परवाह हमें होती नहीं।
तुझे खेलना हो जो बन्दों से जहान के, तेरे बन्दों में मै हूँ नहीं।
तुझे पूजते हैं सभी डर से, सम्मान से, मई तुझे मानता ही नहीं।

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