कभी भूली बिसरी यादो में,
कभी बिखरे से जज़बातो में,
कभी आँखों के किसी कोने में,
पर अक्सर लम्हे वो चले आते हैं।
हम लेटा करते थे ज़मी पे,
तारो को आसमा से लाने को।
आवारा घूमते बादलो से,
पानी निचोड़ लाने को।
पल दो पल में पाना चाहा था,
हर ख़ुशी हर अर्मान को।
ज़िंदगी में रफ़्तार को,
फिर मौत के फर्मान को।
सोचते थे है सब हममें,
कुछ कर दिखने को।
डरते नहीं थे आंधियो से,
आसमां को चीर जाने को।
पर ज़िंदगी को प्यार था शायद,
प्यार था उसे मुझसे बेइंतहा
मुझमे जो समां गयी चुपके से
कि अब जी रहा हूँ मै उसको,
आहिस्ता आहिस्ता। ....
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