Friday, March 29, 2013

बिक रही आज़ादी है!!!


बिक  रही आज़ादी है, कौड़ियो के दाम पे
कही पार्टीयो के तो कही धर्म के नाम पे।
चोराहो पे बैठ के , नारे ऐसे लगा रहे 
ज़ंजीरो को बांध के, आज़ादी को भगा रहे।
कौन ज़ंजीरो से बांधेगा, उनको चुन के लाते हैं
लगाके ताला किस्मत पे, चाभी उन्हें थमाते हैं।
आज़ादी का मतलब क्या, जब ज़ंजीरो में रहना हैं
खुले समन्दर सोचे क्या ,जब कुंए में ही रहना हैं।

Tuesday, March 26, 2013

साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!

साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!
की जंहा हमने बहादुर बेटी खो दी 
की जहा सहिदो का सम्मान नहीं
की जहा सच्चाई का मोल नहीं 

साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!
करप्सन जहा पर रुकता नहीं 
करप्सन करने वाला थकता नहीं 
करप्सन रोकने वाला बचता नहीं 

साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!
दुश्मनों से लड़ मरता हैं कोई 
दुश्मनों को भोज देता हैं कोई 
दोस्तों को दुश्मन बनाता हैं कोई 

साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!
आरक्षण जाती पे मिलती हो जहा 
आरक्षण धर्म को मिलता हैं जहा 
आरक्षण गरीबो को मिलता भी नहीं 

साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!
वैसे तो बहाने बहुत हैं पास मेरे 
रंगों में रंग अब घुलता नहीं 
एक भाई दुसरे से मिलता नहीं 
मिलते हैं तन, मन मिलते ही नहीं 
रंगों से सजी ज़िन्दगी, बेरंग जहाँन देखता नहीं 
साल यंहा मुझे होली खेलनी नहीं!

Tuesday, March 19, 2013

ज़िन्दगी को कहले


आँशु दर्द के निकल आए, मुझे खुश देख कर,
के हर ज़ख्म रो पड़ा,मेरी हँसी को सुन कर,
जी रहा हूँ अब ऐसे, की मर चुका हूँ मै पहले,
कहानिया ख़त्म हो गयी,अब ज़िन्दगी को कहले।

Sunday, March 10, 2013

बहादुर लड़की !!!!!

लुट चुकी थी जिसकी आबरू,
आज फिर से लुट रही हैं वो।
बेबस तब थी उसकी रूह,
पर आज कश्मकश में हैं।
लौटना था उससे इंतकाम को,
पैर शर्म से चुओ गयी है।
बहादुर जब उसे बनाना था,
तो लचर बना दी गयी थी वो।
जो अब इंतकाम चाहती है,
तो बहादुरी से लिपटी गयी वो।

Wednesday, March 6, 2013

खामोशी


एक खामोशी सादगी कि,
एक खामोशी बेचारगी की।
एक थी वो बेरुखी की,
एक थी वो प्यार की।
एक खामोशी क्रोध थी,
और खामोशी वार सी।
एक थी सागर सी भरी,
एक थी बंज़र ज़मी।
लब्ज़ के बिना हो खामोशी,
या करोंडो लब्ज़ हो।
शर्म कहती है कही,
तो कही बेशर्म हैं।
एक खामोसी के अन्दर,
जाने कितने दर्द हैं।

Saturday, March 2, 2013

दुआ

गर कर लेता कबुल हर दुआ, तो तुझे पूजता ही क्यों बन्दा।
गर हर ख्वाहिस हो जाती पूरी, तो तुझसे मांगता क्यों बन्दा।
गर कर सकता कुछ खुद से, तो हाथ फैलता क्यों ये बन्दा।
गर रखनी थी इत्ती मजबुरिया, तो बनाया ही क्यों ये बन्दा।

माना कायनात हैं ये तेरी, तो क्यों न खेलेगा तू इससे।
ये जमी तेरी ये आंसमा तेरा, तो रंग क्यों न भरेगा इसमें।
ये दरिया तेरी, ये पर्वत तेरे, तो जन्नत बसाया है इसमें।
पर इन्सा बनाके तूने, दिलो दिमाग दे दिया क्यों इसमें।

तेरी ऐसी बद्शाहत काबुल ना हैं मुझे, तेरे होने की परवाह नहीं।
जो तेरी हैसियत सैता से बढ़के होती, तो परवाह हमें होती नहीं।
तुझे खेलना हो जो बन्दों से जहान के, तेरे बन्दों में मै हूँ नहीं।
तुझे पूजते हैं सभी डर से, सम्मान से, मई तुझे मानता ही नहीं।